प्राण

चेहरे को देख कर लोगों के दर्द को समझ लेना अगर आसान होता तो इतने दर्द भी न होते और न ही हमें अपने गम छुपाने को इतनी कलाबाजियां सीखनी होती! चार पहर का रात, दो पहर सपने सजोने और दो पहर उन सपनों को टूटता देखने में गुजर जाता है। मुश्किलें हैं सभी के पास हैं और बड़ी बड़ी मुश्किलें हैं और सभी की अपनी मुश्किलें दूसरे किसी और व्यक्ति के मुश्किल से बड़ी मुश्किल है। इसमें कमाल यह हो जाता है जब हमारी मुश्किलों को कोई पढ़ने वाला नही होता। जिस तरह सभी के पास मुश्किलें होतीं हैं वैसे ही लगभग सभी के पास कोई न कोई साझेदार होता है या कोई ऐसा जरूर होता जो बस देखते आवाज सुनते ही समझ जाए हां कुछ तो वाकई समस्या है!! लेकिन जब कोई साझेदार नही होता कोई पढ़ने वाला नही होता कोई समझने वाला होता तब शुरू होती है घुटन!

निकल सकता है प्राण
लेकिन मजबूर हूं

गिरे हुए ताड़ के पेड़ पर बैठे बैठे
खोखली होती टीलों को देखता हूँ
तो डबडबा जाती हैं आँखें
सहेजने में जिसे उम्र गुजरी
मुज को खाई के तरफ बोने में
जाने कितनी दफा फिसलन मिली
कितने बार हथेली तलावर से कटी
तब कुछ बांस के सर पर छपर लगें
जिनमें कई बरसाते गुजरी
भरी दोपहरी बीती सांझ के दिये जले
गम बीतें महफ़िल बंटी जश्न मनें
सदिया सदिया जिनमें किस्से चले
बनी भी! सैकड़ों कहानियां लतीफ़े
कहकहे किलकारियां सब, यह सब
मुसाफिरों से कह हंस लेता हूँ
जब कोई बैठ क्षण भर पूछता है
डबडबाई आंखों को चुप करा
सोचता हूँ मजबूर हूं वरना
निकल सकता है प्राण लेकिन
लेकिन मजबूर हूं।।।

Jyotiba Ashok

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