मानवता
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यहीं कहीं।।
फिर कहीं कहीं।।
यही थोड़ थोड़ में बिकती रही हैं मानवता।।
कभी हमनें नही देखा जरूरतमन्द फकीर।।
कभी हुकूमत ही जलाती रही हैं मानवता।।
पूछ सवाल तू हर किसी से।।
शहर शहर, गाँव गाँव, गली गली, घर घर ।।
हर शक्ल, हर जानवर, पत्ता पत्ता, कण कण।।
लाँघ जा तू लकीर।।
आप के लिए भी।।
आप से भी।।
अफ़सोस।।
फिर कह।।
यहीं कहीं।।
फिर कहीं कहीं।।
यही थोड़ थोड़ में बिकती रही हैं मानवता।।
~: ज्योतिबा अशोक
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