ख़त 7

ख़त 7

लिफाफे बन्द होने से बातें बन्द नही होती।।
कई दिन के चुपी के बाद ये अदना सी बात समझ आई।।
पन्नो को पलटते पलटते आज अमृता का वो ख़त हाथ लगा।।
जिसे अमृता ने आखिरी ऊँचाई पे रह कर इंद्रजीत को अपने इंद्रजीत अपने जीत अपने इमरोज़ को लिखा।।
शायद तुम्हे यकीन न हो।।
मेरे हाथ तो रुके थे मगर उँगलियों के नश नश तक लिखने को बेताब थे मन का एक एक कोना कागज को कई कोनो से मोड़ मरोड़ के खत बना ही लेता था रही सही कसर आँखों की पुतलियां कर देती थी।।
और बिन कलम बिन स्याह बिन कागज।।
हफ़्तों की बातें घण्टो में जाहिर हो जाती थी।।
बेचैनियां आज इस कदर इस चारदीवारी में घर कर गई न चाहते हुए भी कलम चल पड़ी।।
तुम ये खत पढ़ोगे तो सोचोगे आज ये मेरे ख़त में अमृता कौन हैं?
अरे बस बस दिमाग पे ज्यादा जोर न दो।।
ये अमृता लुधानवी की अमृता हैं।।
जिसे लुधानवी कभी अपने जबान पे चढ़ा न सके मगर ता उम्र अमृता के अमृत में पड़े रहे।।
कुछ कुछ अमृता की भी तबीयत यही रही बेजुबान मोह्हबत बिन पैर के ख़त में चलती भी कहाँ??
मेरे आँख तब बह पड़े।।
जब अमृता ने आखिरी ख़त अपने लुधानवी को लिखा तो वो भी उसको उसका नाम न दे सकी।।
इस तरह वो उलझी हुई पटुये की डोर भी जून के ताप में सुख के अलग थलग पड़ गई।।
तुम समझ रहे हो न।।
मैं लुधानवी नही मगर तुम मेरी अमृता बनते जा रही हो।।
और मैं लुधानवी रह कर तुम्हारे ऊपर अपना रंग डालना चाहता हूँ तुम्हारा इंद्रजीत बनना चाहता हूँ।।
तुम मेरी अमृता बनोगी न।।
बोलो इंद्रजीत की अमृता।।
वैसे मैं तुम्हारा लुधानवी भी बन गया तो भी सुकून से मैं अपने आप को आज़ाद कर लूँगा।।
हाँ सच।।
इस चारदीवारी से इस बिन दीवाल वाले घेरे से घुटन से तन्हाई से तड़पन से अपने आप को आज़ाद कर लूँगा।।
हाँ।।।
~: ज्योतिबा अशोक

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