ख़त 12

()राजनीति का क्या? चलते रहता है इसमें लिखना कौन छोड़ेगा भला? अच्छा बुरा सब साथ न चले ऐसी ज़िन्दगी भी किस काम की? तो पेश है मेरे एक किताब में शामिल होने वाली एक नई रचना। पसन्द आये तो वाहः वाहः करें न आये तो भी करें हाहाहा भाई अगली बार बेहतर लिखूंगा हौसला अफजाई तो करो! खैर ओर अधिक परेशान न करते हुए ये रहा आपके सामने खत 12()

-【ख़त 12】-

तुम्हारी तस्वीर को सहेजना
मेरे लिए तुम्हे सहेजना सा ही रहा है।
लेकिन कुछ दिनों से अब वो चाहत भी जाती सी लग रही
हर सुबह वही चार पांच तस्वीर देखता तो हूँ लेकिन हर सुबह सी तुम उसमें मुस्कुराती नहीं हो
हर दोपहर वही चार पांच तस्वीर देखता तो हूँ लेकिन हर दोपहर सा तुम उसमें बातें नही करती हो
हर रात वही चार पांच तस्वीर देखता तो हूँ लेकिन हर रात सी तुम उसमें गुनगुनाती नही हो
खुलेपन में भी एक घुटन सा लगता है
जैसे कोई है जो मेरी सांसो मेरी चाहतों मेरी मुस्कुराहटों पे काबू किए है।
घबराव नही मन है इसपे किसका जोर?
एक सच बोलू?
तुमसे मिला था जब पहली बार
अच्छा लगा था
फिर बहुत अच्छा लगा था फिर और भी अच्छा लगा।
फिर कोशिस किया इस मन को खमोश करने की लेकिन तुम्हारी नशीली नजरों ने हमें हज़ार बार नाकाम किया।
मैंने हार नही मानी  ठीक वैसे ही जैसे तुम मुझे नाकाम करते रहे कभी आंखों से लगा कर कभी आंखों को दिखा कर हाहाहा
इस षड्यंत्र,
हां तो और क्या कहूं? जिसमें तुम जादू कर कर के मुझपे जीत हासिल करते चले गए और मैं हारते चला गया!
अच्छा बाबा नाराज न हो षड्यंत्र न सही जादू तो कह ही सकता हूँ न!
हां तो, इस जादू में तुम्हारे इन होंठो ने कान के इन बालियों ने बालो में उलझे तुम्हारे अँगुलियों ने वो जो तुम गुलाबी रंग की चुन्नी लगाती थी न! सबने भरपूर पूरा पूरा साथ दिया।
मैं बेचारा बेचारा तो नही ही था लेकिन बन गया था जादू की वजह से। आखिर कब तक टिकता?
और जो मैं ही नही टिका फिर मन को क्या दोष दूँ?
जब खुद के मन को दोष नही दे रहा तो तुम्हे क्यों कहूँ की क्यों तुम्हारी वो चार पाँच तस्वीर आज कल मुस्कुराती नही बोलती नही गुनगुनाती नही? क्या हक़ है मुझे कुछ भी कहने का?
बीते कुछ दिनों से तुम्हारी बहुत याद आ रही थी
आज यूँही चाँद को देखने लगा।
लिखने की चाह अब तक गई नही
पहले शायरी लिखता था तुम्हारे लिए
अब बेनाम ख़त लिखता हूँ वो भी तुम्हारे लिए। (कुछ इसके बारे में सोचा नही बस लिखने लग गया तो अब अक्सर ही लिखता हूँ)
बिता सहर मखमल का जैसे काठ का रात आ गया
हर चीज जम जानी चाहती है
मन भावनाएं उम्मीदें चाह जुनून दुनिया वक़्त मैं सांसे सब
ठंडी का असर हो शायद!
उतनी ठंड तो नही फिर भी दीवाली के बाद (हां हां दीपावली) इतनी ठंड तो आ ही जाती है जो गिरे हुए बूंदों को हवा में ही गायब कर दे।
ये भी पहली दफ़ा एहसास हुआ है शायद ठंडी की वजह से की जो पानी आंखों से गिर रहा फिर वही बून्द ठंड से शीशे का नख्तर बन गालों में घुस जाना चाहता है।
लेकिन इस ठंडक में इतना जोर नही जितना दम मेरे अंदर के ठंडक में है।
मेरे अंदर का आग पहले बुझ रहा है फिर शांत हो रहा है फिर वर्फ़ में बदल के एका एक सा पिघल जा रहा है।
जो दिख रहा आँखों से बहता हुआ वो पानी नही आग है जो ठंड के थपेडों से पानी मे बदल गया है। मेरे ढाए इतने जुल्म सहें है शायद इसी वजह से ये नमकिन हो गए।
बहुत कड़वा हूँ न! तुम्हारे दिए आँशु रहते तो शायद मीठे रहतें।
खैर सब कुछ उल्टा।
ज़िन्दगी भी हमारी ऐसी ही चली,
हमारा साथ भी ऐसे ही चला।
मेरे अंदर का ठंडक रुकना नही चाहता रोकना चाहता है वो भी वक़्त को! भला मुमकिन है?
मुझे आज की ये फ़िज़ा पसन्द नही आ रही वरना इन हवाओं के चादर में खुद को लपेट देता।
कमरे में जा रहा वही चार पांच तस्वीरों को लिए।
ख़त भींगे फिर से लिख लूँगा
ये तस्वीर भींग गई तो! नही नही
अब आंशु फर्श पे ही गिरेंगे ये पन्ना ये कलम भी फर्श पे ही रहेंगे मैं भी। बस तस्वीर सहेजनी है।
अरे परेशान न हो,
तुम्हारी और तस्वीर की चाह नही इसे खो दूँ इतनी हिम्मत भी नही
सुबह तक इस खत में कुछ और भी लिखूंगा कुछ अच्छा सा कुछ गुदगुदाने सा
सुबह तक यह पन्ना भींग कर गलने से बच गया तो।
नींद तो नही आ रही हाँ बन्द आंखों से आँशु बह रहे हैं कभी कभी तुम भी दिख रही हो
सोना है अब सोते है।
इस बेनाम ख़त को सहेज कर भी क्या? देखेंगे सुबह बचा रहा तो ठीक वरना और भी ठीक।

राजवंशी जे. ए. अम्बेडकर

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