ख़त 13

()मुझे सच में नही पता क्या लिखना था? लिखने के बाद पढ़ा तो कुछ और ही मिला पढ़ने को ऐसा तो बिल्कुल भी नही सोच था। हाँ आज सुबह से ही कुछ लिखने को मन कर रहा था कुछ मुहब्बत के बारे में ही। शिर्षक भी अब दे रहा हूँ पढ़ने के बाद। आप भी पढ़े।()

-【 ख़त 13 】-

आज सुबह से ही तुम्हारी याद आ रही थी।
मतलब क्या बताएं!
बहुत याद आ रही थी।
कई दिनों के छुट्टी के बाद पहला सोमवार था फुर्सत ही नही मिली कि कलम को पकड़ूँ
यूं तो कलम तो सुबह से ही हाथ मे था उँगलियों पे कलम के निशान भी बन आये है और पूरी हथेली नीली तो कही कही लाल और हरे रंग की छीटों के स्याह से भरी पड़ी है। वैसा इसलिए कहा ताकि तुम मेरे कलम पकड़ने का मतलब समझते हो।
खाना हो गया है अब बिछावन पे हूँ।
तुम्हे लिखते , तुम्हे पढ़ते , तुम्हे समझते , तुम्हे देखते जब नींद आ जाए।
हाँ तो मेरी मुमताज़,
क्या ख्याल है बोलो क्या लिखूं आज!
दुनिया का ऐसा कौन सा झूठ लिखूं जिसपर तुम इठला जाओ। हाहाहा
तुम्हे पता है? आज हम तुमसे नाराज हैं। या यूं कह लो कि हमने अपनी घड़ी के सुई को 6 साल पीछे ले जा कर वहां रोक कर रख दिया है जहां हम कॉलेज में थें।
दिन में तुम्हे क्लास में देखना और छुट्टी में तुम्हारे मोहल्ले के चक्कर लगाना।
वो नौकरी बढ़िया थी हाँ जेब मे पैसे कभी कभार ही रहते थे वो भी इस आशिक़ी में खत्म हो जाते थे लेकिन सब चलता था अभी की नौकरी में सिर्फ जेब मोटी रह गई है उस पैसे से भी कोई खास मतलब नही होता।
खैर।।
तुम्हारे मोहल्ले में शायद ही कोई ऐसा था जो मुझे नही जानता था कई बार मार भी हुई पीटा भी पीटाया भी कई सरीफ समझते थे तो कइयों ने मेरे चेहरे की दुहाई देनी सुरु कर दी थी ऐसा तुमने ही बताया था।
लेकिन इन सब के बावजूद भी मैं चालक तो बहुत था ये बात तुम्हें भी माननी पड़ेगी।
रोज एक ही मोहल्ले में चक्कर लगाना!
रोज उसी छत को देखते हुए गुजरना!
और फिर भी हमारी कहानी किसी मोहल्ले वाले के पकड़ में न आना!
मेरे लिए कोई यूपीएसी पास करने से कम न था।
जो झगड़े हुए वो सब किसी और के साथ सन्देह पे हुए।
नाराजगी की बात यह है कि यूं तो खूब हंस हंस के बात करती हो बुलाते भी हो और जब आता हूँ तो गायब!
छत तो दूर खिड़की से भी देख लेते?
कभी कभार दिख भी गए तो झटके से मुझे देखते ही तुरन्त गायब?
अरे भाई, मैं पिटने को तैयार था तुम्हारी एक झलक पाने के लिए एक ही रोज चार बार अस्पताल जाने को तैयार था फिर भी तुम?
क्यों?
मुझे नही करनी थी न यूपीएसी।
तुम समझते क्यों नही थे?
जिस दिन गुजरते हुए तुम दिख जाते थे उस दिन का जिक्र ही नही करना।
करूँ भी तो क्या? निःशब्द था तब भी आज भी हूँ।
ऐसा लगता था जैसे मैंने मुगलीयत सल्तनत पा ली है।
ऐसा लगता था ये चाँद ये दिखने वाली जमीन जहाँ तक मेरी नजर है सब मेरी हो गई है।
ऐसा लगता था कि बस .......... एक ठंडी आह निकल जाती थी पूरी रात करवटों में गुजरने के लिए।
लेकिन मशला तब होता था जब तुम नही दिखती थी
रात को नींद तो तब भी नही आती थी लेकिन रात बड़बड़ाहट में गुजरती थी
कल से नही जाना है। समझ क्या रखा है? मैं नही देखूंगा तो जी नही पाऊंगा?
इतना भी कमजोर नही हूँ।
इतनी भी हूर नही हो
कल तो पक्का नही जाना है...
और कल की सुबह तुम्हारे मुहल्ले में ही होती थी क्या पता?
और अगर वापिस निराशा हाथ लगी तो फिर से वही गुस्सा।
शायद मेरे गुस्से की भनक तुमको भी रहती थी इसलिए तो तुम उन सभी रोज कॉलेज पूरे 1 घण्टे पहले आती थी।
मैं बावला!
तुम्हे देखते ही मेरा सारा गुस्सा गायब हो जाता था।
जैसे आज हो गया अचानक से तुम्हारी तस्वीर को देख कर।
कुछ नही कहना निःशब्द हूँ।
बस चली आओ।
चली आओ की अब और तन्हा गुजारा नही होता।
बहुत गुजारा वक़्त।
या, या फिर आजाद कर दो हमे हमेशा के लिए।
हमेशा हमेशा के लिए।

राजवंशी जे. ए. अम्बेडकर

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