अमर गुलाम

()ज़िन्दगी हर चीज़ सिखाती है घाव दे दे कर हर मर्ज की दवा देती है। आप सीखना चाहते हो तो आपके सामने अच्छे अच्छे ज्ञाता विद्वान सब फिंके हैं। ज़िन्दगी में पनपी उलझनों को शब्दों के रूप में कितना न्याय दे पाया हूँ इसका फैसला तो आप करेंगे। लेकिन हां ये ज़िन्दगी है मेरे दोस्त मौत नही जो चुपके से आए और गुजर जाए! यह रहेगी भी हक़ भी जमायेगी अपना हिस्सा भी लेगी और जरूरत पड़ने पर जबरदस्त ठोकर भी देगी सिख सको तो सिक लो अगले बार के लिए। क्योंकि जब तक सीखा न ले यह हार नही मानती। झुकना तो आपको ही है सिख कर झुकों या धूदकार कर!!()

-【 अमर गुलाम 】-

गिरते ओस से कांच पर बने फिसलन पर
मुझे चढ़ना होता है।
घोंघे की तरह
मद्धम मद्धम आहिस्ते आहिस्ते
घोड़े की फुर्ती है मुझमें बल भी है हाथी सा
लेकिन, मन मे भरे इन आशंकाओं के बीच किस किस से लड़ूं? कहाँ तक लड़ूं!
आंख खुलते ही छत में सुराख दिखता है
करवट लेता हूँ तो एक जवान बच्ची जो कि मेरी बहन है दिखती है
कुछ सुनना चाहता हूँ तो जर्जर हड्डियों के कड़कने की आवाज आती है।
जैसे बाहर आता हूँ मेरा अधिकार मर रहा होता है
देश रोता हुआ दिखता है
समाज मेरी हालत हालात पर बैठ के कहकहे लगा रहा होता है।
कहीं से आवाज आती है 'बाबू ब्याह कर लो'
कैसे कर लूं माँ!
किसे ठुकरा दूँ कहाँ से लड़ के चार पैसे लाऊं तेरे लिए बच्ची के लिए और उस नए मेहमान के लिए भी
बाहर तो है ही मेरे अंदर की दुनिया तक मुझसे लड़ रही
मैं कहाँ तक भागूं!
चेहरे की सिकन को मुस्कुराहट में बदल तो लेता हूँ
चन्द सिक्कों के कुछ टॉफियों के बल पर
लेकिन इनसे पेट तो नही भरता न!
पीड़ा जो मेरे दिमाग मे है खत्म तो नही होती न!
सुबह सोचना है शाम की सब्जी कहाँ से आएगी! शाम खाये जाती है मुझे सुबह के भात को लिए।
एक तरफ कुछ मिल जाए इसके लिए लड़ रहा
लड़ाई मध्य ही बीच बीच मे
दूसरी तरफ जो है वह भी खो न जाए  इसमें उलझ रहा
खुद को मार मार कर सरसराते दुनिया को बढ़ते हुए आगे निकलते हुए चुप चाप मौन रह देखना होता है
इसी में हारते हुए मन से बची खुची जान लगा कर
चढ़ना होता है
आहिस्ते आहिस्ते मद्धम मद्धम
मैं जो मध्यम वर्ग का नौजवान हूँ
सामर्थ्य तो है मुझमें लेकिन मैं कुत्ते सा पालतू
मैं समाज का बेहद प्यारा गुलाम हूँ। अमर गुलाम।।

राजवंशी जे. ए. अम्बेडकर

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