थोड़ी रंगीनियत रहने दो।।

()आज कल की मेरी लेखनी कही और चली गई है। देश की हालत पर मन पिघल जाता है। लिखना मेरा फर्ज है मेरा हथियार है मैं आज कल इसे सच मे हथियार मान लिया हूँ। लेकिन मैं सुरु में ऐसा नही था मुझे लगता था हम(देश) सुधरेंगे थोड़ा थोड़ा कर के ही सही लेकिन ज्यादा ज्यादा कर के बिगड़ गए।
खैर आज कुछ पुराने अंदाज़ में पुराने लहज़े में शायरी की कोशिस। पढ़ें आनंद लें इसे भी। मुझे लगता है एक अच्छा आशिक़(किसी भी प्रकार का) ही एक बेहतर क्रांतिकारी बन सकता है। वैसे मैं अभी न आशिक़ बन पाया हूँ और न ही क्रांतिकारी शब्द के करीब तक भी जा पाया हूँ।()

हां भई मुफ़्सीलि का दौर है माना मगर थोड़ी सी तो रंगीनियत रहने दो।।
यह दिल-ए-जमीं जो भरी है ख़्वाहिशों से इसी में कहीं खुद को रहने दो।।

मैं कहाँ और कब कहता हूं की बेचैन नही यह मुल्क, इसकी आबोहवा।।
दोस्त मन में जलते इन लपटों में न ज्यादा मगर थोड़ी नमी तो रहने दो।।

वह जो थी कल तक तुम्हारी कातिल उसे कहो तो एक बार फिर से मिले।।
अरे उन सुर्ख होंठो में बसे एक लम्बे इंतजार का कुछ असर तो रहने दो।।

यह जो है एक पर्दा अब तब में गिर ही जायेगा यहां कौन ताउम्र आया है?
बढ़ने भी दो गम को गम ही तो है इसी में थोड़ी अपनी खुशी को रहने दो।।

-- राजवंशी जे. ए. अम्बेडकर

No comments:

Post a Comment

-- 【 the story of every living dead stone. 】 --

-- 【 the story of every living dead stone. 】 -- At that stage when my colleagues and my cousins ​​try to strengthen the leg.   I was at th...