()नई किताब फाइनल।।(बधाई दे सकतें है या कवर दिखने तक इंतजार कर सकतें हैं)
आज फ्री हुआ अब बस करेक्शन बचा है। कवर वैगर सब एडिट कर लिया हूँ। सोचा बहुत दिन हुए क्यों न एक कविता लिखी जाए। देश की हालत इतनी बद्दतर हो चुकी है कि कलम भी थक जाए। खैर इतनी आसानी से तो नही ही थकने देंगे। पेश है नई कविता खुद भी पढ़े दूसरों को भी पढ़ाये।()
-- 【 आज़ाद!! 】 --
कह तो रहा हूँ मैं की आज़ाद हूँ।
लेकिन ये जो पाबन्दी लगी है मेरे पहनावें पे
यह जो मेरे खाने पे उंगली उठाया जाता है
कभी भी बेलगाम मेरी संस्कृति जिसे मैं मानना चाहता हूं को निशाना बना कर मुझे मार दिया जाता है
कहूँ भी तो कैसे कहूँ मैं आज़ाद हूँ?
मैं इस देश का शासक रहा हूँ मैं चाहता हूं कि मुझे भागीदारी मिले
लेकिन मेरे काले रंग का मजाक उड़ाया जाता है
कहाँ जाता है मुझे अयोग्य
बिन मुकाबला के ही!!
ऐसी परिस्थिति में भी
कह तो रहा हूं मैं की आज़ाद हूँ
यह कहना मजबूरी है तो यह गुलामी ही है न!
जहां मेरे लब बिन सिले ही बंधे हो
जैसे बन्ध जाता है किसी मरे हुए शरीर का अंग अंग पोस्टमार्टम के बाद
और वह तड़पने कूदने चिल्लाने वाला देह निढाल पड़ा रहता है
विवेकशून्य
ऐसे ही तो हो गया है मेरा मन
मैं चाहता तो हूँ कि बदले यह हालत
मैं मरा सा हूँ मरा तो नही!
कानूनन आज़ादी और मन काठ लिए।
कह तो रहा हूँ मैं की मैं आज़ाद हूँ।।
राजवंशी जे. ए. अम्बेडकर
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