गुजराती काका

()तबियत जरा नाख़ुश है सर में दर्द भी रह रहा है कुछ दिन पूर्व एक्सीडेंट भी हो गया था। लिखने का कार्य बस मन के संतुष्टि तक और डायरी तक ही था बस मन के बवंडर में डूबा रहता था। उसी हालत में आज आप सब के लिए कुछ अलग कविता लाया हूँ पढ़े और आनंद लें। ()

- 【 गुजराती काका 】-

थोड़ा थोड़ा बेच दिया थोड़ा थोड़ा लुटवा दिया
जो कुछ बचा था पंजर
उसे चाय में डुबो के खा लिया खिला दिया।
अमरीकी जुते को पहना दिया मेरे सर
जो मैं चिल्लया तो भगवा से मुँह रंग दिया
गिड़गिड़ाया ज्योहीं हंस लिया अपने जैसों को हंसा लिया।
देशी स्वदेशी देशी स्वदेशी का ढोंग रच दश लाख का कुर्ता पहन लिए।
हम उलझे रहें कुर्ते में तुम अफगानी काजू के रोटी खा लिए।
एक से कहलवाया आरक्षण भीख
खुद कह दिया आरक्षण जीत
एक से कहलवाया तुम सूरज बनाए
खुद कह दिया
नही नही नही नही हमने सूरज नही बनाया
ये साजिश है मेरे खिलाफ
हमने ब्रह्मांड बनाया।
विपक्ष को ही गलिया लिया!
हम मक्खी देश के जलेबी
डूबे रहे चासनी में
न जाने कब हमें चीनियों के हाथों बेच दिया
जो कुछ अस्थि बची थीं
उसे चाय में घोल के खा लिया खिला दिया।
मुझे भी मुझ जैसे असंख्यों को भी।

राजवंशी जे. ए. अम्बेडकर

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