ख़त 15

ख़त 15

लड़खड़ाते शब्दों से लड़खड़ाती ज़िन्दगी को लिखना मुश्किल है थोड़ा
फिर भी आज तुम्हारी बहुत याद आ रही
तुम गए क्या! सब कुछ बदल गया
तबियत ठीक नही बदन टूट रहा सर फटा जा रहा एक हमारी याद है हां हमारी
बेचैन किए है।
एक डर सा लग रहा है कुछ दिनों से ऐसे भी बहुत परेशान हूँ
कई बार मन के कलम से दिल के दीवारों पर तुम्हारा नाम लिख लिख कर मिटा चुका हूं
सुनो फिर से पूछ रहा लौट क्यों नही आते!
लौट नही सकते तो हमें भुला क्यों नही देते!
हर रोज हिचकियाँ! हर रोज एक ही समय पर!! यह तो बीमारी नही है।
उसी समय पर जब मेरे दवाई का समय हो? कैसे??
जाओ नही खाता...
तुम्हें याद है हम ऐसे समय पर अधिक से अधिक साथ रहते थे!
तुम जल्दी जल्दी कैसे सारा सामान इकट्ठा कर के मेरे आस पास ही इधर उधर करते रहते थे मुझे सो जाने को हजारों मिन्नते करते रहते थे मुस्कुरा जब तुम दवाई की दो ढक्कन देते थे तो ऐसे लगता की अभी दौड़ पडूंगा लेकिन शरीर इस काबिल कहाँ होता था!
तुम्हे प्रत्येक सर्दी सर्दी आने का जितना गम रहता था उतना गम तब भी नही होता था जब मैं तुम्हे शाम का समय बता कर भी लेट हो जाता था
इस सर्दी मैंने अपने आप को पूरा पूरा बचा के रखा लेकिन आखिरी आखिरी में थोड़ा बस थोड़ा सा बाबा
पता नही कैसे मालूम ही नही चला देखते ही देखते
धड़ाम से बेड पर..
हां सर्दी में एक बेड लाया हूँ किताबों के बीच किसी भी किताब को सर के नीचे रख के सो लो..वैसे सोता तो अब भी किताब को सर के नीचे ही लगा कर लेकिन अब एक चौकी है चौकी के ऊपर एक चादर और उसके ऊपर किताबें उसके नीचे किताबें
जानते हो यह चौकी भी शुरू में रोज रोज ही पूछता था यह घर किसका है मेरा तो भी लगता!
मैं क्या कहता... अब किताबो को उससे दोस्ती हो गई है और मुझसे नफरत..
शायद उसे भी हमारे मुहब्बत और मवरी गलतियों का राज मालूम हो गया है।
सच कहूं बहुत याद आ रही तुम्हारी
अकेलपन काटने को दौड़ रहा लौट आओ न!
ज़िन्दगी के हालात और दिल की हालत
किससे कहूँ?
सभी लेखक समझते हैं और लेखक के आधी बातों को वो ख्याल फसाना ही समझते है और आधी बातों को सच मान भी ले तो बात मेरी ही है यह नही मानते
परेशान बहुत हूँ चाहता हूं मैं भी तुम्हारी तरह बहुत बहुत बहुत बोलना
बोलता भी हूँ लेकिन तुम्ही बताओ अब किसी से यह तो नही कह सकता न ये कहानी मेरी ही है?
कुछ कुछ बोलते रहता हूँ लोग हंसते रहतें हैं उन के हंसी में तुम्हे ढूंढने के कोशिश में अंदर ही अंदर रोते रहता हूँ
अब और लिखना मुशिकल है रोने से लगता है बुखार लौट आया है
चादर भी सर के तरफ भींग गया एक ही चादर था
क्या ऐसा नही हो सकता तुम गुस्से से ही सही दूसरी चादर लेते आओ तोड़ी दवाई भी नही है और कोई अपना भी नही जिसे कह मंगवा लूं।
सुनो आ जाओ अब..
या अपना पता ही भेज दो सभी खतों को लेकर आ जाता हूँ तुम्हारे पास तुम्हे पढ़वाने।।

~: ज्योतिबा अशोक

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