-- 【 इंसाफ दो 】 --
काले दिन में
उसके दुप्पटे को खींच कर
उसके सफेद/गेंहुए या धूप से जली काली छातियों पर
कोयले के भट्ठे से 'इंसाफ दो' लिखा पाता हूँ
मेरी हंसी छूट जाती है।
मैं ठहाके मार पड़ता हूं
जब नारी शक्ति नारी सम्मान नारी अधिकार नारी बराबरी की मांग करती हुई स्त्रियां
पहलवानों के घेरे में सफेद लम्बी कारों से उतर
मर्द के इसारे पर 'इंसाफ की भीख' मांगने की अभिनय करती हैं
ऐसा भी देखता हूँ
इनमे से कई स्त्रियां उन्ही ललचाई आंखों लार टपकाते जीभ की जूठन होती है
जो चखना चाहते है और भी सफेद मन को
इन स्त्रियों के आड़ में अपनी हैवानियत को बढ़ाना चाहते हैं
ऐसी ही
सृंगार से लबालब भरी स्त्रियां
जब लिखती हैं नारी आज़ादी की कविताएं
तब मुझे एहसास होता है
कीचड़ से भरे समाज में गुलामी के बू से बजबजाती सोच
किस किदर हावी है
क्यों आखिर तक इंतजार होता है?
आखिरी बचे कपड़े के टुकड़े के हटने का!
आखिर यह मशालें
असल में जो लाल आंखों से तलाशती है नए शिकार को
पहले क्यों नही जलती जिन पर फेंक के पानी
जिन्हें बुझाया जा सके
हंसी आती है खूब हंसी आती है
जब इंतजार होता है अपने ओहदे से गिरने का
जब नम्बर दो के पुरुष बनने का अभिमान होता है
जब कोई औरत
बेच कर अपना मन अपनी देह को परिभाषित करती है
तब हंसी आती है
अफसोस के सागर में लगाते ठहाकों पर ठहाकों के बीच
डूब कर सोचता हूँ
यह सब पहले क्यों नही होता
मर्दो को गरियाने से पहले कारण तलाश क्यों नही होता
क्यों स्त्री ऐसी स्थिति ही बनने नही देती
और जवाब में मिलती है
कुछ धार्मिक साहित्य
कुछ तथाकथित सफेद कार वाली नारी नायिका
जो अपने अपाहिज हाथों से
जिनके नाखून पहले गिर चुके है जिनमे इतना भी दम नही अपने आप को कुरेद सकें
जो अपने अंधे आंखों से
जिनमे इतनी भी रौशनी नही जो अंधेरा तक को महसूस कर सकें
ऐसे धार्मिक कंधे एवं स्त्रीवादी नारिया अपने माथे
सबल स्त्रियों के भविष्य का जिम्मा उठाये चलती हैं
लंगड़ाते पाव।
Jyotiba Ashok
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