कौन सुलझाये।
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तेरे पायल से निकलते संगीत को कौन सुलझाये,
तेरे कंगन में छिपे सुरीले सुर को कौन सुलझाये।
हो गया हूँ बावला सा इन चंद दिनों में मैं काफिर,
ऊँघता सूरज, अलसी ये चाँद को कौन समझाये।
तेरी वफ़ा के तलवार पे हमने सारे अपने गम रखे,
दुनिया के दिए सितम व जुल्म को कौन समझाये।
चाहत की खुशबु जो बह रही हैं मेरे शहर ऐ गली,
बदलते मिज़ाज़ के राज को और कौन समझाये।
कर दूँ खाख ऐ तबाह बीती सारी उलझनों को मैं,
पड़े रहूँ इश्क़ ऐ जंजीर, इन्हें भला कौन सुलझाये।
तेरे पायल से निकलते संगीत को कौन सुलझाये,
तेरे कंगन में छिपे सुरीले सुर को कौन सुलझाये।
~: ज्योतिबा अशोक
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