इंक़लाब अब हम रटने लगे हैं।
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फौलाद लकड़ी के कोयले से होने लगे हैं.,
सच कहूँ इंक़लाब अब हम रटने लगे हैं।
कभी गंगा तो कभी हिमालय रँगने लगे हैं.,
धर्मी तवे पे चावल की रोटि शेकने लगे हैं।
खुद की बेड़ियों में खुदी जकड़ने लगे हैं.,
सच कहूँ अंग्रेजो की गुलामी भूलने लगे हैं।
लौटाने लगे हैं अमन दहसत पालने लगे हैं.,
जहर की बूंदों को सरबतो से बाँटने लगे हैं।
जमीर हमारे ईंट के पहाड़ो में दबने लगे हैं.,
सच कहूँ दरिंदे भी तो शर्मसार होने लगे हैं।
पुरवाई की खुश्बू से हम अब चिढ़ने लगे हैं.,
नादाँ पानी की भीड़ में कश्ती भूलने लगे हैं।
क्या था रास्ता और ये किधर चलने लगे हैं.,
सच कहूँ जय भारत भी याद करने लगे हैं.!
~: ज्योतिबा अशोक
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