जिनसे लिपटकर जी भर रोती हैं आँखे.,
वो बेजुबां दीवार भी कमाल की होती हैं।
छुपा लेती हैं फर्श पे बिफरे सैलाब जो.,
वो भारी बरसात भी कमाल की होती हैं।
बिखरते हैं किस कदर गुलाबी नरम पत्ते.,
हवाओं में दरिंदगी भर जाते हैं कहाँ से!
क्यों हो जाता हैं दुश्मन कल का अपना.,
उल्फ़त बेवफाई भी कमाल की होती हैं।
तड़पता हुआ दिल जलता है बिन धुएं.,
वो लगी आग भी कमाल की होती हैं।
ये हुस्न, उल्फत, जहां, दस्तूर सभी सच.,
वो अधूरी सच भी कमाल की होती हैं।
उजड़ते हैं किस कदर खूबसूरत घोसलें
बागों में ये नफरत भर जाते हैं कहाँ से!
क्यों बदलते है डोर वो रेस्मी तांत के।
ये झूठी शान भी कमाल की होती हैं।
मर रहा होता हैं चलता फिरता शरीर.,
ऐसी खुदगुशि भी कमाल की होती हैं।
पत्थर होंठ खिलखिलाते हैं वाह खूब.,
ये अदाकारी भी कमाल की होती हैं।
बने बैर हैं किस हद तक एक दूसरे में.,
दिल के शहर में इतनी रंजिश कहाँ से!
बेशकीमती की भी कीमत तो हैं ही न.,
ये कीमती चीजे भी कमाल की होती हैं।
रात रात भर छत पे गुजरने का जूनून.,
तन्हा रुस्वा राते भी कमाल की होती हैं।
कैसे कैसे होते हैं फसाने यहाँ "अशोक"
जुल्फों की कैद भी कमाल के होती हैं।
~: ज्योतिबा अशोक
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