अपने बेगाने
लोग सम्भल जाते है तो समझदार हो जाते हैं।
अपने को मार कर दुसरो के खास हो जाते हैं।
गर्दिश में जिनपे लूट दो अपना सारा खजाना।
वो कल के फकीर बड़े से सेहंशाह हो जाते हैं।
उन्हें याद रहते हैं ज़माने से किये वादे, इरादे।
हमारे ये खिलौने भी उनके गुलाम हो जाते हैं
देते हैं जो हमें तकलीफ़ उनका दोष नही हैं।
लूटा दौलत हम भी शहर ए आम हो जाते हैं।
छू जाये आग गम किसे? आग को दर्द न हो।
बेकार म्यान भी पीठ पीछे तलवार हो जाते हैं।
ये बेमुरव्वत लोग ढूंढते हैं काम के रिश्ते नाते।
घड़ियाली आशु में छिपे, भगवान हो जाते हैं।
पूछूँगा किसी रोज इस जहाँ से वक़्त मिला तो।
आखिर अपने बेगाने, अपने बेगानो के कैसे !?
खैर देखना ये हैं कहा तक झेलती हैं ये आँखे।
एक हद बाद दिलीसोच भी दिमाग हो जाते हैं।
~: ज्योतिबा अशोक
No comments:
Post a Comment