"मन्दिर मस्जिद"
मजहब आइना ढंक के चेहरा देखता हैं।।
सियासत कब गरीब के अंचल देखता हैं।।
औरत हर दिन हर रात हर घर में लुटती।।
भरा पेट आखिर कब सलीका देखता हैं।।
टपकता पानी, गुजरती हैं हवा टाट से हो।।
अमीर की दिवार से कहाँ सांड लड़ता हैं।।
बेफिक्र सोता हैं खुदा मन्दिरो मस्जिदों में।।
जलता हैं घी, वहाँ पे आग कब लगता हैं।।
बुझे हुये चूल्हे में जलता हैं बिन आग पेट।।
इंसान तो बस ख्वाब का पुलाव लगता हैं।।
चलो पूज तो लू मैं भी पत्थर को "अशोक"
पर मुझे वो बड़े घर का कलाकार लगता हैं।।
~: ज्योतिबा अशोक
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