बिखर तो जाऊँ मैं मगर सुबह तक तकिया सुख जाता हैं।।
मिलते ही ज़माने से नज़र आँख-ए-दरिया सुख जाता हैं।।
भींगती रहती मैं रात रात भर भींगाते रहती हूँ दरों दिवार।।
दरवाज़ा खुलते ही कमरे का कोना कोना सुख जाता हैं।।
मेरी तन्हाई तक भी तन्हा हो फफक उठती हैं यूँ अक्सर।।
मगर दिन के तपिश में गम का सारा बादल सुख जाता हैं।।
कोई बनाये अपना या कोई बन जाये अपना अफ़सोस हैं।।
अब तो अपने के शब्द से खुशि का ज़रीया सुख जाता हैं।।
लटक के चाँद भी डालियो से देखता हैं मेरे खड़कियो में।।
सोचता हो भूख में भी कैसे रोटी का टुकड़ा सुख जाता हैं।।
हालात ने ही सीखा दिया मुझे सब हु ब हु रिवाज़ करना।।
वो जादूगरी भी कहाँ की दिखता हरा पता सुख जाता हैं।।
ये भी अजीब हैं कि बिन धुप कभी बिस्तर सुख जाता हैं।।
तो कभी एकहि रात बिन हवा 4 5 अंचल सुख जाता हैं।।
~:ज्योतिबा अशोक
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