उन्होंने हटाया नक़ाब, बेपर्दा मैं हो गया।।
सारे शहर में किस्सा अजीब मैं हो गया।।
रस भरी हैं उन सफ़ेद कजरी आँखों में।।
जरा देखने भर से ही नशेड़ी मैं हो गया।।
बरस गये मुझपे बिजली बन इस कदर।।
वो क़ातिल हैं और गुनेहगार मैं हो गया।। छुपता रहा सूरज जुल्फ के घटाओ में।।
कांपते रहे होंठ और गुलाब मैं हो गया।।
हाँथो में उनके यूँ लिपटने लगी ओढ़नी।।
वो सम्भलने लगे और घायल मैं हो गया।।
बज गए जो घुंघरू अब बजते ही रहे हैं।।
वो राजकुमारी और युवराज मैं हो गया।।
मेरी ये नज़र ने कौन सी खुसबू बिखेरी।।
चाँद रही बेखबर और फ़ना मैं हो गया।।
उन्होंने हटाया नक़ाब, बेपर्दा मैं हो गया।।
सारे शहर में किस्सा अजीब मैं हो गया।।
~: ज्योतिबा अशोक
No comments:
Post a Comment