हे प्राण

हे प्राण।।
तुम्हे कितनी परेशानी हैं।।
झंझट में रहते, जीवीत रह असंख्य छोभ झेलते।।
कोई बुरा भला कह जाता,
फिर भी इस मोह के दुनिया से तुम जाना क्यों नही चाहते।।
क्यों आखिर फंसे रहते हो इस आभासी दलदल में,
क्या तुम भी लालची हो।।
मुझे तो नही लगता।।
तुम ही कहो जो कहो।।
प्रिय देह।।
शून्य, इकाई और अनंत समझते हो।।
शून्य जहाँ कुछ भी नही न मैं न तुम न देव न दानव न पृथ्वी न नभ कुछ भी नही।।
ऐसे में तो मैं जा नही सकता स्थान ही नही शून्य तो पूर्ण हैं न।।
इकाई जहाँ हैं एक के बाद दूसरा चौथे के पहले तीसरा पांचवे के बाद छठा।।
यहाँ दश बिश के भीतर समाहित हो सकता हैं।।
सौ को बन्धन हैं नीनवे के ऊपर और दो सौ के भीतर रहने का।।
सौ, हज़ार, लाख, करोड़, अरब, खरब।।
जगह ही जगह हैं।।
यहाँ मैं तुम देव दानव पृथ्वी नभ सबके लिए स्थान हैं सब रह सकते हैं।।
अंनत ये एक न खत्म होने वाली सिमा हैं।।
सभी सीमाओं से परे।।
जिसकी अपनी न खत्म होने की सीमा हैं न सुरु होने की वो क्या बंधेगा किसी को।।
क्या अनंत की छमता हैं मुझे धारण करने की।।
मैं सिर्फ अपने स्थान में रहता हूँ।।
और जिस दिन मुझे तुम बाँधने में असमर्थ हो जाओगे मैं भी सिमा हिन् हो जाऊँगा।।
ये सभी कष्ट जो झेलने पड़ते हैं।।
मुझे झेलने ही होंगे।।
ये विरोधाभास हैं मेरे लिए मेरे संघर्ष का मोह माया में झेला हुआ महापाप नही।।
मैं तो अपने स्थान में नित्य सकर्मशील हूँ।।
जब तक तुम बांध सके हो बंधा हूँ।।
इकाई के सिमा में हूँ
फिर अनंत के सिमा विहीन मार्ग पे चला जाऊंगा सदा के लिए।।
न सिमा खत्म होगी न लौटूंगा।।
अब तुम बताओ प्रिय देह।।
कौन मोह माया में हैं कौन कष्ट का शिकार हैं।।
सोचो सोचो सोचो जब सोच लेना उत्तर देना।।
मैं यही हूँ इकाई के जीवन में।।

~: ज्योतिबा अशोक

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