वो भींग रहा होगा।।
तब भी।।
बस हममें से किसी ने देखा नहीं।।
झमाझम बारिशो में।।
जब हम मग्न देख रहे होते हैं वीर जवानों के चलचित्र।।
जब हमारी रसोई खाने से आ रही होती हैं पकोड़ियां गर्मागर्म।।
उसी झमाझम में भींग रहा होगा।।
वो।।
ठेले खींचता, रिक्शा खींचता।।
तेज भाग भाग कर बचाते बड़े सामनो को खुद को भींगा कर।।
वो भींग रहा होगा।।
तब भी।।
बस हममें से किसी ने देखा नहीं।।
टप टप गिरते ओश में।।
जब मग्न हम जी रहे होते हैं छिप कर आगो के लपटों को।।
जब हमारी अर्धनगनी बाहों में सज के खेल रही हँसा रही होगी।।
उसी गिरते ओश में भींग रहा होगा।।
वो।।
कान सर मुह को बांधे।।
तेज भागता देह में गर्मी लाने को अपने से ज्यादा वजन उठा रहा होगा।।
वो भींग रहा होगा।।
तब भी।।
बस हममें से किसी ने देखा नहीं।।
पसीजते अपने ही खून में।।
जब मग्न हम जी रहे होते हैं हंस हंस के भोर में।।
जब हमारा दोस्त अदरक के प्याले पे गुलाल डाल रहा होगा।।
उन्ही पसीजते खून में भींग रहा होगा।।
वो।।
उसका बच्चा उसका सम्पूर्ण परिवार।।
भूख के कराह से, पानी के सहारे जी रहा होगा कैसे भी मर मर के।।
बस हममें से किसी ने देखा नहीं।।
वो भींग रहा होगा।।
तब भी।।
बस हममें से किसी ने देखा नहीं।।
~: ज्योतिबा अशोक
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