ख़त 3

ख़त 3

तुम्हे याद तो होगा वो कमरा!
जहाँ तुम बोला करती थी, गुनगुनाया करती थी।
उस कमरे में आने वाली रौशनी तक पर तुम्हारी हुकूमत थी याद हैं!
दिवार टीवी पलँग कुर्सी मेज सब तुम्हारे दीवाने थे तुम्हारे एक इसारे पर सब चहकने मुस्कुराने लगते थे।
जैसे वो सब कोई जीव हो।
तुम्हारे पैरो के झंकार में पुरानी से पुरानी तस्वीर भी अपने ऊपर लगे धूल को झाड़ कर थिरकने को मजबूर हो जाया करती थी।
दरवाज़े से सटे खिड़की थी जिसके आगे टूटी एक मेज और उससे लगी एक कुर्सी।
था तो तुम्हारा वो भी मगर तुमने मेरे हवाले कर रखा था जिस पर सिर्फ बैठने भर का हक़ मेरा था।
वही कोने में मेरी कुछ किताबें रोज रखती रोज बदलती रहती थी तुम।
कलम मेरी पसंद से रखे जाते थे।
और एक चाय की प्याली हर वक़्त!
मैं जब भी उठाता उसमें चाय रहती और तुम बगल में मुस्कुराती।
तुम्हे कैसे एहसास होता था मेरी चाय का आज तक समझ नही आया।
उसी कुर्सी पर बैठा था तो कलम वही रहती हैं।
किताबो की जगह कागज ने ले लिया हैं।
प्याली वही हैं मगर उसमे अब कुछ भी रह जाता हैं कुछ भी चाय को छोड़कर।
रात को कमरे पर लेट से आता हूँ।
सारे पुराने समान हटा दिया हूँ खाना भी अब बाहर ही होता हैं भूख हुआ तो वरना बोतल से ही दाल चावल खाता हूँ।
सोचता हूँ ये पानी तो तुम नही बनाते थे फिर इसका स्वाद क्यों नही पहले जैसा!
कल पलँग भी दोस्त को दे दिया।
आज कल कुर्सी पर ही या अख़बार पे गुजारा होता हैं।
सवाल पूछता था तुम कहाँ हो?
बोलो किस किस को जवाब देता और क्या?
जिस सवाल का जवाब खुद नही पता कहाँ से और कब तक झूठ बोलता?
पूरा कमरा खाली हैं बस किताबे हैं और किताबे और ढेर सी किताबें।
ये तुम्हे नही जानती
मगर पूछती हैं की
कि ईंट इतने उदास क्यों हैं? फर्श गीले क्यों हैं? क्यों अब दरवाज़ा खड़कता हैं? खिड़कियाँ क्यों सलीके से बंद नही होती?
जवाब कुछ नही।
वो जो पंखा हैं, आज कल वो भी खराब हैं एक पहचान वाले हैं कल ले जायेंगे।
चाय की केतली याद नही कितनी बार मेरी हाथ जलाई वो भी एक दोस्त को दे आया किस काम का तुम बिन?
जहाँ हम थे।
हम सब।
हम हमारी चाहते हमारे सामान हमारी एक एक जिंदगी।
आज बस मैं हूँ मेरी किताबे हैं।
हाँ कुर्सी मेज दीवाल की ईंटे फर्श की मासूमियत ये सब हैं।
हैं तो वही।
मगर
सब मरे, सब के सब बेज़ान।
मैं भी बेसुध बेजान साँस लेता साँस छोड़ता एक सामान।
कागज भर गया हैं,
आंशुओ के टप टप से गिला भी हो रहा।
सुबह तक गल ही जायेगा।
बैठा था, लिखता चला गया।
भेजता कहाँ! बस यूँही लिखता गया तुम्हारे बाद यही एक आदत हैं।
जो सीने को जिन्दा रखे हैं धरकाये रखे हैं।
देखते हैं कब तक।
कब तक धरकाये रखे हैं।।।।।

~: ज्योतिबा अशोक

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