ख़त 4
आज छुट्टी हैं।
कमरे में पड़ा हूँ और सोच रहा।
की काश,
तुम एक दफा लौट आते तो कहता।
मुझे भूल जाना।
हमने झेली हैं यादो की सितम, वफाओ के जहरीले दंश नही सहा जाता।
यक़ीन करो तड़पा भी नही जाता।
यक़ीन करो रोया भी नही जाता।
यक़ीन करो जीवन गुजारा भी नही जाता।
और यक़ीन करो मरा भी नही जाता।
खैर,
अच्छा हैं तुम नही लौटते।
वरना बोल पड़ती ये आँखे, होंठ ये रो पड़ते, सुलग जाता कलेजा, साँस ये ये ये..
यक़ीन मनो चुप रहा भी नही जाता।
यूँही,
यही सब सोच रहा था कि तुम्हे भूल जाता तो कितना अच्छा होता और लिखने लग गया।
एक बेनाम ख़त को फिर से एक बेनाम पत्ते पर।
जो धूल जायेगा कमरे से मेरे निकलने तक।
जो धूल जायेगा कमरे से मेरे निकलने तक।
जो धूल जायेगा कमरे से मेरे निकलने तक।
~: ज्योतिबा अशोक
No comments:
Post a Comment