ख़त
आज कल रोज ही लिखता हूँ।
कुछ भी।
सोचता हूँ,
तुम तक अल्फाज़ो के लिफ़ाफ़े ने अपना दिल ही भेज दूँ।
या, या इन आँखों को निकल कर रख दूँ तुम तक।
तुम तक बस तुम तक।
और लिखूं की लो अब पढ़ लो,
खुद ही,
क्या देखने? क्या सोचने? कैसे रहने लगा हूँ?
निकालता हूँ कलम और बार बार चाय के प्याले में डूबा देता।
आता तो नही,
फिर भी गोल गोल घूमने लगा हूँ।
अकेले मैं छुप के सबसे।
हंस हंस के बहुत आज कल मिलने जुलने लगा हूँ।
हंसो मत सच में ऐसा होता हैं,
और
रोज ही ऐसा होता हैं।
ऐसा ही रहता हूँ।
जैसा लिखा हूँ।
आज कल रोज ही लिखता हूँ।
और सब लिखने के बाद मिटा देता हूँ।
कहाँ भेजू पत्ता भी नही मालूम।
जिसे भेजू उसका दिल भी नही मालूम।
तुम भी लिखो जैसा मैं लिखता हूँ।
और भेज दो खत,
मैं भी।
तुम हज़ार इकरार लिखना।
मैं लाख इजहार लिखता हूँ।
और भी।
कुछ भी।
आज कल रोज ही लिखता हूँ।
~: ज्योतिबा अशोक
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