ख़त 6
खुश हो न।।
वर्षो बाद,
फिर से लोगो का "आप" बन गया हूँ।।
"मैं" कौन था!?
ये शब्द खो सा गया हूँ।।
एशा भी लगता हैं "अपने" शब्द को तोड़ तोड़ के नए शब्द गढ़ लिया हूँ।।
"आप" का शब्द।।
यही चाहते थे न।।
तुम ही तो कहते थे बार बार हज़ार बार।।
मुझमे सलीका नही, जीने नही आता, बात में लहजे की कमी हैं, बच्चा सा रहता हूँ।।
बहुत कुछ।।
और "मैं" हर बार मुस्कुराता
और तुम हर बार बिगड़ते।।
है न।।
आज घर लौटते वक्त "मैं" शब्द सुना।।
बेहद इम्तनां खुश्बूदार दो लोगो के बीच का "मैं"
एक पल जी चाहा बैठ जाऊँ।।
कुछ पल उनके ही बिच और उन्हें सुनते रहूँ किसी दियारे में बिछड़ी कोयल सी।।
जो पानी के खनखन, मुज के सरसराहट पर भी कु कु बोल पड़ती हैं "मैं" भी एक छण वैसा ही बावाल बन गया था।।
लेकिन तुम बिगड़ गई थी न जब कोई अंजान हमारे बीच कोई आ बैठा था।।
खैर।।
"मैं" को समेट लाया कमरे तक और कलम में भर कर ख़त पे उड़ेलने लगा।।
सोचा एक सवाल कर लूँ।।
बोलो!!
खुश हो न।।
"मैं" फिर से लोगो का "आप" बन गया हूँ।।
~: ज्योतिबा अशोक
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