ख़त 9
अँधेरी काली रात।
उजाले का दूर दूर तक नामोनिशान नही।
अपनी हाथ की गोरी हथेली भी काली दिख रही थी।
मन के आँखों से देखने की कोशिस किया कुछ दिखाई पड़ा वो थे तुम।
छुट्टी की पहली रात भी कमाल की होती हैं, न सुबह जगने की जल्दी न रात के खाने की, खाये भी तब न जब भूख हो!
टटोलते उंगलियों में कही से पेंसिल लग पड़ी शायद कोई कागज में पड़ा था।
बहुत कोशिस किया मोड़ मरोड़ के देखा लगा की अख़बार हैं हालांकि की अख़बार था नही ये सुबह मालूम हुआ।
आँखों के बूंदाबादी में भींग के उस कागज के टुकड़े ने अख़बार बनने की कोशिस की थी बिना छपाई अदृश्य शब्दो का लंबा लेख लिए साफ सुथरा कागज था, किसी ने उसे धो धो के बड़े ईमतनान से साफ किया हो।
जैसे कोई नई नवेली दुल्हन के पैरों का वो पायल जिसे मायके जाने के पहले बड़े ही धौर्य से धोती हैं फिर देखती हैं फिर धोती हैं जब तक ईमतनान न कर ले हाँ अब कुछ दाग न रह गया हैं।
मैं ढूंढ तो कलम रहा था ताकी उसे अपने उंगलियों पे नचा नचा के कुछ वक्त और काट सकू मगर हाथ आई पेंसिल हालांकि कुछ गलत न हुआ इसे भी नचा ही लेता हूँ मगर हल्की होने के कारण अंदाज़ उतना नही बैठ पाता और अख़बार हाथ लगा तो किस ख्याल से पेंसिल उठाया ध्यान ही नही रहा।
कागज के मुड़ने से कुरमुरा सा आवाज आया।
बिल्कुल वैसा ही, बिजली चले जाने पर हम ढेर सारे कागज मोड़ मोड़ के एकदूसरे पर मारते थे और उन कागजों पर लिखे होते थे एक दूसरे के लिए कुछ शब्द रोज तो ये न होता था मगर हाँ छोटे शहर में बिजली जाने का कोई वक़्त नही होता है ठीक वैसे ही जैसे हमारे बेवजह बेतरतीब बेख्याल के खुशियों का।
सुबह होते ही हम सभी कागज के गोले ढूंढ कर उनपर उकेरे शब्दो को पढ़ते।
अँधेरी घनी रातो में लिखे बहुत से शब्द तो समझ ही नही आते मगर जो आते उसे पढ़ पढ़ के खूब हँसते।
ये रात तब बस ऐसी ही होती थी मगर लगती तो सूर्यमुखी के फूल से चमकदार।।
उन्ही यादो में खोया हुआ अख़बार पर हस्त्ताक्षर करने लगा याद भी नही कितना।
याद भी नही कब सोया।
कुछ याद नही उन काली रातो में क्या हुआ।
अफ़सोस न करो तुम्हे बताया तो था मेरी भूख मेरे जली रोटियों की खुश्बू अब सब तुम्हारे साथ रहती हैं खाने न खाने का उतना फर्क नही पड़ता जाने कब तक ऐसी जिंदगी चलेगी मैंने तो ये उम्र भर का समझौता किया हैं तूम लौट आओ तो इन सब वादों से मुह मोड़ लूँ मगर यकीन हैं तूम नही लौटोगे।
किताब में समाए गर्म पानी जब गाल में लगे तो हड़बड़ा के उठा उस दिन मालूम पड़ा आँशु गर्म होते हैं। वाकई।
किताब पूरी तरह खराब हो चुकी थी सौ वॉट के पिले रंग की बल्ब का फिलामेंट तेज रौशनी मे टूट कर आँखों के पुतलियों में घुसा जा रहा था दबी आँखों से वक़्त देखा तो सुबह के पाँच बज रहे थे हाथो में पेंसिल अब भी फंसा था फर्क था तो हस्ताक्षर का।
लिखा अपना था और छपा तुम्हारा था।
कागज को भींगे हुए किताब में लगा कर, आँखे फिर से बंद हो गई आँखों से कान तक एक पतली सी गर्म लकीर बन गई किताब बिलकुल बेकार हो गई।
मैं निढाल सो गया।।
एक अनन्त इंतज़ार में की तुम आओ तो जगू तो जगू तो जगू।
~: ज्योतिबा अशोक
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