()कुछ लिखना भी है और मन को कुछ जम भी नही रहा।😏 उड़े हुए मन से कुछ नया लिखने की कोशिस किया हूँ पुराने अंदाज़ में। अब कितना सफल हुआ ये तो आप ही तय कर सकतें हैं। हालांकि मुझे ऐसा लगता हैं आप मेरी कविता सिर्फ शिर्षक से ही सराह देंगे।(ये मेरा भ्रम भी हो सकता हैं) खैर बहुत बात न करते हुए आग्रह करूँगा पढ़े और आनंद लें अगर पसन्द आए तो सराहें भी()
-【 हुकूमत की चाबुक।। 】-
दिल्ली से सीसे की चाबुक कन्याकुमारी तक चलती है
कभी भंजती उत्तर - पश्चिम कभी पूर्व तक बरसती है
है सवार मेघ रथ पे कहाँ कमान में किसी के आती है?
ये "हुकूमत की चाबुक" है बबुआ बेटोक गिर जाती है।
न आओ आड़े न हो जाओ ठाड़े पड़े रहो जस के तस।
दुध मुँहें बच्चों के होंठो से नव जननी के आँचल तक पे
ये पीठ से सरसराते हुए पेट तक निशान छोड़ जाती है।
ये "हुकूमत की चाबुक" है बबुआ बेटोक गिर जाती है।
अफसरशाही की दुलारी ये पूंजीपतियों की घरानी है।
आज के कलमगारों की पसंदीदा दहेजी बहु रानी है।
सफेद कमीज़ वालों ने जंजीर की चादर पहन रखी हैं।
ये "हुकूमत की चाबुक" है बबुआ बेटोक गिर जाती है।
सत्य अब असत्य हुआ, चारो तरफ घोर महामारी है।
लाश बने घूमते हो इस हुकूमत की चाबुक के सामने?
बचो बचाओ, लड़ो भीड़ों वरना कल तुम्हारी बारी है।
ये "हुकूमत की चाबुक" है बबुआ बेटोक गिर जाती है।
राजवंशी जे. ए. अम्बेडकर
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