()पब्लिक डिमांड है भाई साहब अब पद्मावती हो या पद्मिनी किस्सा खत्म होना ही चाहिए। ()
()ये कविता आज ही सोची और दिन में लिखी। लाइन था नही की मोबाइल चार्ज करूँ और आप सब के सामने रखूं। इस कविता के बारे में पहले पहल सोचा की इसका शिर्षक "आग" रखा जाए रखा भी। लेकिन कविता पूर्ण होने के बाद 7 8 बार पढ़ने के बाद शिर्षक बदल दिया। एक बात और यह जो रचना है ये मूल रूप से थोड़ा बदला हुआ है बस थोड़ा सा। इस कविता में क्या है अगर आप वहां तक पहुँचते हैं तो मेरा लिखना सार्थक हो जाएगा। वरना कोई बात नही "नया" शब्द का बहुत बड़ा समर्थक हूँ मैं। खैर अब और कितना बकबक करूँ! हाहाहा सीधे पढ़ते है देखते है क्या है यह कविता क्या रस है? शिर्षक है "गृहस्थ" ()
-【 गृहस्थ 】-
मैं तुम्हारें अंदर बसे आग को नही नकारता
नही, बिल्कुल नही।
ना ही मेरी इच्छा है इस आग को समाप्त करने की
ना ही मैं किसी के सामने हिमालय की चोटियों का महिमा-मण्डन करना चाहता हूं
जहां यदा कदा ही जीवन संभव है
ऐसे जगहों पे जीवन है! यदा कदा जीवन भी कोई जीवन है?
मैं इसे जीवन कहने से अच्छा सीधे "ना" भी कह दूं तो भी कोई मशला नही।
ऐसे विचारणीय प्रदेश के बारे में एक गृहस्थ को क्या?
गृहस्थ तो गृहस्थ है न!
दो रोटियों के लिए अपने परिवार संग चींटियों सा चलने वाला
गृहस्थ को ऐसे बुझे हुए प्रदेश से क्या?
ना वह लेखक है! ना वह पुजारी!! ना वह कोई शोधकर्ता!!!
हां इससे एक सवाल जरूर बनता है।
फिर उसे आग भी क्यों?
नही दोस्त ऐसा नही है।
तुममे आग हो।
तुम कोई हिमालय थोड़ी हो! निराश नीरस दुनिया से अनजान
बस तुम्हारी आग सूरज इतनी भी न हो।
बस इतना हो,
जिसमें तुम अपने कड़वे बेर को पक्का के उसे मीठा कर सको।
इतना नही जहां तुमसे नारीयल तक जल सुख जाए।
राजवंशी जे. ए. अम्बेडकर
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