()कुछ दिन पहले जिक्र किया था कठफोड़न पर कविता लिखने के लिए। एक पहले प्रयास किया था आप लोगो ने सराहा लेकिन आपके साथ साथ मुझे भी जरूरत महसूस हुई और भी मेहनत के लिए। मैं भी आपको निराश नही करना चाहता। आजकल समय को जैसे दीमक लग गए है कुछ कारण से व्यस्तता इतनी बढ़ गई है कि दिन घण्टो का नही मिनटों में गुजरने लगा है। कई दिन से उठते बैठते सफर में आपके लिए कैसे प्रयास करूँ सोच रहा था। आज परिणाम आप सबके सामने है। बन्दा हाजिर है सुधारे या आदेश दें और प्रयास का दोनों ही सूरत में आपका दिल से स्वागत है।()
--【 रे कठफोड़न 】--
रे कठफोड़न,
तेरा प्रीत कैसा!
जग जाहिर कर स्वप्न अपना
वह जो सहेज रहा
तुझे
ठक ठक की ठोकरे खा
जिसके अंग को क्षत विक्षत कर बनाएगी अपना आसरा
रे कठफोड़न
बदले में क्या देगी!
थका हारा सूखा पड़ा ठूठ
होता प्रहार
सहता प्रहार
पहली किरण से आखिरी किरण तक
जिसे तू खाये जा रही
जो मुस्कुराए जा रहा खुद को दो तरफा खो कर
चिंता नही
फिक्र नही
वह तो देख रहा है
अपने अंदर समाहित होते नव जीवन को
जो बह गए पानी
खाई देख कर
खाई की चाह भी नही
उन बहारों की टोह भी नही
अपने उथले जीवन में स्थिर होते पा रहा
खुद को
चाह रहा
नेह
अपने समपर्ण पर
स्मरण कर मृत्युशय्या पर
रह कर अपना सर्वस्व लुटा रहा
चुप चाप सा फैला देता डालियों को अपने
जिनपे फुदक फुदक तू
आराम कर सके चह चहा सके
वह खत्म कर रहा अपने भीतर का रस
क्यों!
तू मारे ठोकर
वह टूट जाए
घर तेरा जुट जाएं
स्वप्न तेरा हो साकार
हर पहर
प्रथम
कर रहा प्रयास
उसके इस प्रयास का
परिणाम मांग तो नही रहा
फिर भी
रे कठफोड़न
बदले में क्या देगी
थोड़ा वफ़ा देना
बे मौसम भी
खराब मौसम भी
अपना वहां आसरा रखना
जब गिर जाए वह
बतलाना
वफ़ा
किस्से उसके कानों में कह
जग में
घूम घूम
आवाज देना
मौका न हो
ठूठ
पूछ बैठे
रे कठफोड़न
बदले में क्या दोगे?
~: Jyotiba Ashok
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