-- 【 किस्से 】 --
सालों पहले के किस्से दोहरा
आज मैं मार लेता हूँ ठहाके
असल में वह मझधार था
जिसपे अन्यायस ही हंस पड़ता
हंस पड़ता या हंसना पड़ता
इतना नही दोहराना लेकिन हा
उस खमोश मझधार में
जो न जाने कहाँ से आई थीं यहाँ
यहां तो समंदर नही रेत भी नही
जिसमें मर गईं मेरी सारी चाहतें
मेरी वो उदासियां जिन्हें छुपाने को
दर ब दर ढूंढता था अकेला ओट
मुझ जैसा तब उस हालात का या
कोई काला कमरा या बड़ा तकिया
छुपा कर देह अपना जिसमें, जिसपे
अंशुओ से दर्द का छाप छोड़ता
हां टुकड़े हुए दिल व दिमाग का जिक्र
कभी कभी कर लेता किसी किसी से
फिर वही धूप सांझ के किस्से
सालों पहले के किस्से रोज के किस्से।।
Jyotiba Ashok
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