-- 【 रेत की बूंदे 】 --
सदियों से बंजर पड़ी रेत
अचानक उबलने लगी है
बुलबुले भी बनने लगें हैं
भाप भी निकलने लगा है
देखो वो देखो समाते नमी
शायद यहां अब पेड़ लगेगा
लाल पसीना असर छोड़ेगा
मगर उफ़्फ़ यह तपिश क्या
गाढ़ें पानी को ठहरने देगा
क्या यहां दलदल बन सकेगा
क्या यह उड़ी हुई भाप
बादल का रूप ले सकेगी
क्या यहां जंगल बनेगा
कभी भी किसी सूरत में
कल्पना में भी! यक़ीन है?
हां, मुझे लगता है यह
रेत शुरू से तो रेत न होगा
कुछ तो निर्मित होगा यहां
आधा अधूरा सा टूटा फूटा
वही बनेगा फिर से शुरू से
आखिर चक्रण ही तो प्रकृत है
जमने दो नमी उड़ने दो भाप
गिरने दो बने बादलों की बूंदे
सदियों हो गए बदलाव के
जुझो लड़ो टकराव युद्ध करो
अब बदलाव होगा जरूर होगा।
Jyotiba Ashok
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